राजनांदगांव : आज से सात सौ पचपन वर्षों पूर्व महाराष्ट्र के पंढरपुर में दामा सेठ के गृह में एक बालक का जन्म हुआ था, जो आगे चलकर भगवान विटटल की अनन्यतम भक्ति अपने अलैकिक गुणो और चमत्कारो से संत शिरोमणी नामदेव कहलाये । संत नामदेव जी का संपूर्ण जीवन भगवान विठ्ठल की अन्यनतम भक्ति और अलैकिक चमत्कारो से परिपूर्ण हैं, वे महान सिद्ध संन्त थे उनकी सिद्धता भगवान विठ्ठल की अगाध भक्ति थी जिसके वश में होकर भगवान स्वंय चमत्कार किया करते थे, समस्त चराचर में परमात्मा समान रूप से विद्यमान हैं ऐसा विश्वास करते हुए वे सम्पूर्ण जगत को विठ्ठलमय देखा करते थे, उस समय भारत में जातीयता की जड़े गहराई से फैल चुकी थी, लोग जाति पांति की जंजीरो में जकड़े हुये थे वर्ण व्यवस्था के नाम पर रूढय़िो का कठोरता से पालन हो रहा था कीर्तन करते हुए संत नामदेव जी को ओड्या नागनाथ के पंडित पुजारियो ने मंदिर से बाहर निकाल दिया था इस भेदभाव को समाप्त करने सर्वप्रथम कदम संत नामदेव जी ने उठाया, वे जाति पाति को कोई महत्व नही देते थे। इसी प्रकार संत नामदेव छुआ-छूत को नही मानते थे, हरिजन कन्या जनाबाई आजीवन इनके परिवार के साथ रही और संत समागम से वह भी संत बन गई थी, संत चोखामेला जो धेड़ जाति के थे महाराष्ट्र में उनके प्रधान शिष्य थे। संत नामदेव की मान्यता थी मंदिर या मस्जिद की चारदीवारी में ईश्वर, अल्ला का अस्तित्व नहीं हैं वह तो घट निवासी हैं। वह कहते थे हिन्दु, मुस्लिम दोनो गलत रास्ते पर जा रहे हैं इसलिये वे पुराने रूढिय़ो के विरोध में लड़ रहे थे। दोनो में धार्मिक और समाजिक कट्टरता दिखाई देती थी, रूढि़वादियों के जकड़े हुए समाजो को संत नामदेव ने नया प्रकाश दिखाया। अंध श्रद्धा के कारण धार्मिक आचार विचार के नाम पर सत्य और नैतिकता छोडऩे वाले दोनो संप्रदायो के लोगो को जागृत किया और सच्चा मार्ग दिखाया । प्राणीमात्र के प्रति समभाव, सदाचार, सहिष्णुता, ईश्वर प्रेम भक्ति के विभिन्न मार्गों के प्रति समादर जैसे उच्च विचारो का तत्कालीन समाज में प्रचार किया ।समाज सुधारक - संत नामदेव एक महान संत तो थे ही वे एक सच्चे समाज सुधारक थे, जैसा कि ऊपर कहा गया हैं नामदेव जी जाति-पाति में विश्वास नही करते थे, वर्तमान विकास के दौर में भी हमारे समाज में विभिन्नताएं व्याप्त हैं। खाप, वर्ग, पोट, भेदो के कारण एक होते भी हम विलग विलग बने हुए हैं। नामदेव जी के पिता दामा सेठ दर्जी जाति के थे लेकिन नामदेव जी के अभंगो पदो से ज्ञात होता हैं कि उनके परिवार में कपड़ो की सिलाई, रंगाई, छपाई का काम भी होता था। संत नामदेव के कुल में मूल पुरूष यदुसेठ हुये हैं जो कन्नौज से दक्षिण प्रदेश में आये और महाराष्ट्र के नरसी बम्हनी गाँव में बस गये थे, इनकी छठी पीढ़ी में शाके 1192 प्रभाव नाम संवत्कार, कार्तिक शुक्ल एकादशी तद्नुसार रविवार 27 अक्टुबर 1270 ईस्वी को नामदेव का जन्म पंढरपुर में हुआ था। अस्सी वर्ष की आयु हो जाने पर आषाढ़ बदी त्रयोदशी शालिवाहन शक 1272 अर्थात 3 जुलाई 1350 ईस्वी में पंढरपुर में विठ्ठल पांडुरंग भगवान के मंदिर के महाद्वार में संत नामदेव महाराज के समाधि ली थी। संत नामदेव के जन्म से लेकर अब तक सात सौ पचपन वर्ष पूर्ण हो रहे हैं, उनकी भक्ति का प्रकाश पूरे देश में फैल चुका हैं, उनके महान धर्म, गुणो के कारण वे हमारे समाज के कुल पुरूष हैं। नामदेव जी के जेष्ठ पुत्र नारायण के पुत्र से जो संतान हुई वह अपने को नामदेव नाम वंशी कहलाने लगी और समय में नामदेव वंश जाहिर हुआ हैं, इसी आधार पर नामदेव नाम को हमारे समाज में अपना लिया गया हैं जो नामदेव समाज के नाम से प्रसिद्ध हैं, वर्तमान में संत नामदेव के वंश की सोलहवी पीढ़ी पंढपुर में तुलसीदास नामदेव - नामदास अपने को उनका वंशज कहते हैं।
संत नामदेव के तीन महत्वपूर्ण यात्राएं
संत नामदेव का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था उनका कार्य क्षेत्र संपूर्ण भारत वर्ष रहा हैं उत्तर और दक्षिण का समन्वय करने की दृष्टि से उन्होंने संत मंडली सहित तीन बार यात्राए की थी। प्रथम यात्रा सन 1291 में प्रारम्भ हुई थी उस समय संत नामदेव जी 21 वर्ष के थे, सन 1293 के आसपास यह संत मंडली राजस्थान, बीकानेर में पंहुंची थी, और भम्रण करती हुई सन 1295 को उत्तर भारत आयोध्या, प्रयाग, काशी, आदि तीर्थ स्थानो को होते हुए सन 1296 में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को यह यात्रा पूर्ण हुई थी द्वितीय यात्रा सन 1310 में प्रारम्भ हुई थी। इसमें उन्होने सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि प्रांतो का भम्रण किया, तीसरी यात्रा जो अत्यंत महत्वपूर्ण और दीर्घकालीन थी सन 1325 के आसपास प्रांरभ हुई थी इस समय संत नामदेव महाराज 55 वर्ष के हो गये थे इस यात्रा में सर्वाधिक समय वर्षों तक संत नामदेव महाराज पंजाब में रहे और वहां के लोगो को भगवान भक्ति, सदभावना, प्रेम, समता, एकता से सदुपदेश देते रहे। इनसे प्रभावित होकर पंजाब में हजारो लोग उनके शिष्य बन गये थे और आज भी हैं पंजाब में घुमान नामक स्थान में संत नामदेव जी महराज का विशाल मंदिर गुरूद्वारा हैं, इसमें हजारो की संख्या में संत नामदेव जी को स्वाती नामदेव कहते हैं। संत 1343 में संत नामदेव जी 73 वर्ष के हो गये थे और अपने माताजी की बीमारी का समाचार पाकर यात्रा समाप्त कर वापिस पंढरपुर आ गये थे। इन यात्राओ में संत नामदेव जी महाराज की भगवद भक्ति के अनेको अलौकिक चमत्कारो की घटनाए वर्णित हैं सन 1291 से 1343 तक लगभग 52 वर्षों तक संत नामदेव जी महराज देश का भ्रमण करते रहे और विभिन्न प्रदेशो की जनता को वहाँ की प्रचलित जनवाणी में भागवत धर्म का प्रचार प्रसार किया और अपने अभंगो कीर्तन भजनो के गायन द्वारा एकता प्रेम का बोध कराया यही एक प्रदेश के लोगो को दूसरे प्रदेश के लोगो को मिलाने की एक कड़ी थी। हमारे देश में संतो की महान परम्परा में शायद अन्यत्र कोई ऐसा उदारण हो जहां किसी संत ने अपने जीवन काल का सर्वाधिक समय देश के विभिन्न प्रदेश की यात्राएं करके देश की जनता को एकता सूत्र में पिरोने का कार्य किया हो।
घटि घटि जीव समाना
हमारे देश में विगत अनेकों वर्षो से प्रगति एवं आधुनिकीकरण की दौड़ में वनों की अंधाधुंध कटाई होने से पर्यावरण, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, भूमिक्षरण वनोपज की हानि वन्यप्राणियों की असुरक्षा आदि अनेकानेक समस्याये उत्पन्न हो गई हैं, इनके हल हेतु सरकारी गैर सरकारी योजनाएं जैसे सामाजिक वानिकी फार्म वानिकी वना महोत्सव अभ्यारणय बनाने आदि क्रियान्वित की जा रही है, परंतु पेड़ों का काटना किसी प्रकार कम नहीं हुआ हैं। संत नामदेव जी की मान्यता थी कि समस्त चराचर में ईश्वर समान रूप से विद्यमान हैं उनका कहना था कि ईश्वर ने पिंडज, अंडज, स्वेदज और उदभिज जैसे चार प्रकार के जीव उत्पन्न किये हो और जिस प्रकार पिंडज, अंडज, स्वदेश में जीव हैं, उसी प्रकार उदभिज (भूमि को भेदकर जन्म लेने वाले अर्थात वृक्ष, लता, वनस्पति इत्यादि) में भी जीव हैं, संत नामदेव केवल कहते ही नहीं वरन उन्होंने उन स्दिधांतों पर चलकर स्वयं अनुभव सिद्ध करके बताया है इस संबंध में उनकी एक बाल्य कालिक इस तरह घटना हैं।एक नामदेव की माता गोणाबाई खांसी से पीडि़त होने पर नामदेव जी से बोली कि बेटा बबूल के पेड़ के छाल दवाई के लिये ले आना, मातृसेवा नामदेव शीघ्र ही कुल्हाड़ी लेकर वन में बबूल के पेड़ के पास गये और उन्होंने उस पेड़ पर कुल्हाड़ी का घाव मारा घाव पड़ते ही पेड़ थर-थर कांपने लगा व उसके पत्ती नीचे गिरने लगा। फिर खाल छाल निकालते ही उस पेड़ से लाल लाल पानी निकलने लगा। यह देखकर नामदेव को बहुत दुख हुआ और वे कहने लगे इस पेड़ में जीव हैं मैंने उसे दुख दिया इसी से उससे रक्त बहने अर्थात मेरे हाथ में हिंसा हुई ऐसा समझकर उन्होंने जितने बड़ी बबूल के पेड़ की छाल निकाली थी उतना ही बड़ा मांस टुकड़ा अपने पर कुल्हाड़ी मारकर निकाला जिससे उन्हें बहुत कष्ट हुआ। इतने ही कष्ट इस पेड़ को हुआ होगा ऐसा विचार कर वे बहुत दुखी हो भगवान विट्ठल को स्मरण करते हुए धरती पर गिर पड़़े वहां जाकर देखा तो नामदेव अचेतावस्था में थे, पैर से रक्त की धार बह रही थी और बबूल के पेड़ की छाल निकालने के स्थान से भी लाल-लाल पानी बह रहा था। यह सब देखकर वे समस्त घटना समझ गये तब भगवान विट्ठल को देखकर उनके चरणों में दंडवत प्रणाम किया और सब हाल बताया। फिर दोनों वहां से लौटकर अपने अपने स्थान को गये, नामदेव के घर आते ही माता गोणाबाई की खांसी बंद हो गई यह सब देखकर अत्यंत हर्ष और आश्चर्य हुआ आज से लगभग सात सौ पचपन वर्षो पूर्व संत नामदेव जी महाराज द्वारा बबूल पेड़ काटने की इस घटना से सिद्ध होता है कि समस्त जड़ चेतन में जीव है।